भगवद्गीता का उपदेश एक ही वंश के दो परिवारों के चचेरे भाइयों कौरव और पाण्डवों के मध्य हुए महाभारत के युद्ध की रणभूमि पर दिया गया। इस पुस्तक के परिचय से संबंधित प्रारम्भिक पृष्ठों में उल्लिखित 'गीता का परिवेश' खण्ड में उन घटनाओं का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है जिनके कारण यह महायुद्ध हुआ।
भगवद्गीता का प्रकटीकरण राजा धृतराष्ट्र और उसके मंत्री संजय के बीच हुए वार्तालाप से आरम्भ होता है। चूंकि धृतराष्ट्र नेत्रहीन था इसलिए वह व्यक्तिगत रूप से युद्ध में उपस्थित नहीं हो सका। अत: संजय उसे युद्धभूमि पर घट रही घटनाओं का पूर्ण सजीव विवरण सुना रहा था। संजय महाभारत के प्रख्यात रचयिता वेदव्यास का शिष्य था। ऋषि वेदव्यास ऐसी चमत्कारिक शक्ति से संपन्न थे जिससे वह दूर-दूर तक घट रही घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप से देखने में समर्थ थे। अपने गुरु की अनुकंपा से संजय ने भी दूरदृष्टि की दिव्य चमत्कारिक शक्ति प्राप्त की थी। इस प्रकार से वह युद्ध भूमि में घटित सभी घटनाओं को दूर से देख सका।
धृतराष्ट्र उवाच।
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥1॥
धृतराष्ट्रः उवाच-धृतराष्ट्र ने कहा; धर्म-क्षेत्र धर्मभूमिः कुरू-क्षेत्र-कुरुक्षेत्र समवेता:-एकत्रित होने के पश्चात; युयुत्सवः-युद्ध करने को इच्छुक; मामकाः-मेरे पुत्रों; पाण्डवाः-पाण्डु के पुत्रों ने; च तथा; एव-निश्चय ही; किम्-क्या; अकुर्वत-उन्होंने किया; संजय हे संजय।
धृतराष्ट्र ने कहाः हे संजय! कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि पर युद्ध करने की इच्छा से एकत्रित होने के पश्चात, मेरे और पाण्डु पुत्रों ने क्या किया?राजा धृतराष्ट्र जन्म से नेत्रहीन होने के अतिरिक्त आध्यात्मिक ज्ञान से भी वंचित था। अपने पुत्रों के प्रति अथाह मोह के कारण वह सत्यपथ से च्युत हो गया था और पाण्डवों के न्यायोचित राज्याधिकार को हड़पना चाहता था। अपने भतीजों पाण्डव पुत्रों के प्रति उसने जो अन्याय किया था, उसका उसे भलीभांति बोध था। इसी अपराध बोध के कारण वह युद्ध के परिणाम के संबंध में चिन्तित था। इसलिए धृतराष्ट्र संजय से कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि जहाँ युद्ध होने वाला था-की घटनाओं के संबंध में जानकारी ले रहा था।
इस श्लोक में धृतराष्ट्र ने संजय से यह प्रश्न पूछा कि उसके और पाण्डव पुत्रों ने युद्धभूमि में एकत्रित होने के पश्चात क्या किया? अब यह एकदम स्पष्ट था कि वे युद्धभूमि में केवल युद्ध करने के उद्देश्य के लिए एकत्रित हुए थे। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि वे युद्ध करेंगे। धृतराष्ट्र को ऐसा प्रश्न करने की आवश्यकता क्यों पड़ी कि उन्होंने युद्धभूमि में क्या किया?
धृतराष्ट्र द्वारा 'धर्म क्षेत्रे', धर्मभूमि शब्द का प्रयोग करने से उसकी आशंका का पता चलता है। कुरुक्षेत्र पवित्र भूमि थी। शतपथ ब्राह्मण में इसका वर्णन 'कुरुक्षेत्र देव यजनम्' के रूप में किया गया है अर्थात 'कुरुक्षेत्र स्वर्ग की देवताओं की तपोभूमि है।' इसलिए इस भूमि पर धर्म फलीभूत होता है। धृतराष्ट्र आशंकित था कि कुरुक्षेत्र की पावन धर्म भूमि के प्रभाव के परिणामस्वरूप उसके पुत्रों में कहीं उचित और अनुचित में भेद करने का ऐसा विवेक जागृत न हो जाए कि वे यह सोचने लगें कि अपने स्वजन पाण्डवों का संहार करना अनुचित और धर्म विरूद्ध होगा और कहीं ऐसा विचार कर वे शांति के लिए समझौता करने को तैयार न हो जाएं। इस प्रकार की संभावित आशंकाओं के कारण धृतराष्ट्र के मन में अत्यंत निराशा उत्पन्न हुई। वह सोचने लगा कि यदि उसके पुत्रों ने युद्ध विराम या संधि का प्रस्ताव स्वीकार किया तो पाण्डव निरन्तर उनकी उन्नति के मार्ग में बाधा उत्पन्न करेंगे। साथ ही साथ वह युद्ध के परिणामों के प्रति भी संदिग्ध था और अपने पुत्रों के उज्ज्वल भविष्य के प्रति सुनिश्चित होना चाहता था। इसलिए उसने संजय से कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में हो रही गतिविधियों के संबंध में पूछा। जहाँ दोनों पक्षों की सेनाएं एकत्रित हुई थीं
सञ्जय उवाच।
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्
धृतराष्ट्र इस बात की पुष्टि करना चाहता था कि क्या उसके पुत्र अब भी युद्ध करने के उत्तरदायित्व का निर्वहन करेंगे? संजय धृतराष्ट्र के इस प्रश्न के तात्पर्य को समझ गया और उसने ऐसा कहकर कि पाण्डवों की सेना व्यूह रचना कर युद्ध करने को तैयार है, यह पुष्टि की कि युद्ध अवश्य होगा। फिर उसके पश्चात उसने वार्ता का विषय बदलते हुए यह बताया कि दुर्योधन क्या कर रहा था।
धृतराष्ट्र का ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन निर्दयी और दुष्ट प्रवृत्ति का था। धृतराष्ट्र के जन्म से अंधा होने के कारण व्यावहारिक रूप से हस्तिनापुर के शासन की बागडोर दुर्योधन के हाथों में थी। वह पाण्डवों के साथ अत्यधिक ईर्ष्या करता था और कठोरता से उनका दमन करना चाहता था ताकि वह हस्तिनापुर पर निर्विरोध शासन कर सके। उसने यह कल्पना की थी कि पाण्डव कभी भी इतनी विशाल सेना एकत्रित नही कर सकते जो उसकी सेना का सामना कर सके। किन्तु अपने आंकलन के विपरीत पाण्डवों की विशाल सेना को देखकर दुर्योधन व्याकुल और हतोत्साहित हो गया।
ऐसे में दुर्योधन का अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास जाना यह दर्शाता है कि वह युद्ध के परिणाम के संबंध में भयभीत था। वह द्रोणाचार्य के प्रति अपना आदर प्रकट करने का ढोंग करते हुए, उनके पास गया किन्तु वास्तव में वह अपनी चिन्ता को कम करना चाहता था। इसलिए उसने अगले श्लोक से आरंभ होने वाले नौ श्लोकों में इस प्रकार से कहा।
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमतादुर्योधन एक कुशल कूटनीतिज्ञ के रूप में अपने सेनापति गुरु द्रोणाचार्य द्वारा अतीत में की गई भूल को इंगित करना चाहता था। द्रोणाचार्य का राजा द्रुपद के साथ किसी विषय पर राजनैतिक विवाद था। उस विवाद के कारण क्रोधित होकर द्रुपद ने प्रतिशोध की भावना से यज्ञ किया
और यह वरदान प्राप्त किया कि उसे ऐसे पुत्र की प्राप्ति होगी जो द्रोणाचार्य का वध करने में समर्थ होगा। इस वरदान के फलस्वरूप उसका धृष्टद्युम्न के नाम से पुत्र हुआ। यद्यपि द्रोणाचार्य धृष्टद्युम्न के जन्म का रहस्य जानते थे किन्तु जब द्रुपद ने अपने पुत्र धृष्टद्युम्न को सैन्य कौशल की विद्या प्रदान करने के लिए द्रोणाचार्य को सौंपा तब उदारचित द्रोणाचार्य ने धृष्टद्युम्न को सैन्य युद्ध कौशल की विद्या में निपुण बनाने में कोई संकोच और भेदभाव नही किया। अब धृष्टद्युम्न पाण्डवों के पक्ष से उनकी सेना के महानायक के रूप में उनकी सेना की व्यूह रचना कर रहा था। ऐसे में दुर्योधन अपने गुरु को यह अवगत कराना चाहता था कि अतीत में की गई उनकी भूल के कारण उसे वर्तमान में संकट का सामना करना पड़ रहा है और वह यह भी इंगित करना चाहता था कि उन्हें आगे पाण्डवों के साथ युद्ध करने में किसी प्रकार की उदारता नहीं दर्शानी चाहिए।
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः॥4॥
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः॥5॥
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः
अत्र यहाँ; शूराः-शक्तिशाली योद्धा; महा-इषु-आसा:-महान धनुर्धर; भीम-अर्जुन-समा:-अर्जुन और भीम के समान; युधि-युद्धकला के पराक्रमी योद्धा; युयुधान:-युयुधान; विराट:-विराटः च-भी; द्रुपदः-द्रुपद; च-भी; महारथ:-महान योद्धा, जो अकेले दस हजार साधारण सैनिकों का सामना करने की सामर्थ्य रखता हो; धृष्टकेतुः-धृष्टकेतु; चेकितानः-चेकितान; काशिराज:-काशिराज; च-और; वीर्यवान्-महानयोद्धा; पुरुजित्-पुरुजित् कुन्तिभोज-कुन्तिभोज; च-तथा; शैब्य:-शैव्य; च-और; नरपुङ्गवः-उत्तम पुरूष; युधामन्युः-युधामन्यु; च और; विक्रान्त:-निडर; उत्तमौजा:-उत्तमौजा; च-और; वीर्यवान्-महाशक्तिशाली; सौभद्र-सुभद्रा का पुत्र; द्रौपदेया:-द्रोपदी के पुत्र; च और; सर्वे-सभी; एक्-निश्चय ही; महारथाः-महारथी, जो युद्ध में अकेले ही दस हजार साधारण योद्धाओं का सामना कर सके।
यहाँ इस सेना में भीम और अर्जुन के समान बलशाली युद्ध करने वाले महारथी युयुधान, विराट और द्रुपद जैसे अनेक शूरवीर धनुर्धर हैं। यहाँ पर इनके साथ धृष्टकेतु, चेकितान काशी के पराक्रमी राजा कांशिराज, पुरूजित, कुन्तीभोज और शैव्य सभी महान सेना नायक हैं। इनकी सेना में पराक्रमी युधमन्यु, शूरवीर, उत्तमौजा, सुभद्रा और द्रोपदी के पुत्र भी हैं जो सभी निश्चय ही महाशक्तिशाली योद्धा हैं।
अपने सम्मख संकट को मंडराते देखकर दुर्योधन को पाण्डवों द्वारा एकत्रित की गयी सेना वास्तविकता से अपेक्षाकृत अधिक विशाल प्रतीत होनी लगी। अपनी चिन्ता को व्यक्त करने के लिए दुर्योधन ने यह इंगित किया कि पाण्डव पक्ष की ओर से महारथी (ऐसे योद्धा जो अकेले ही साधारण दस हजार योद्धाओं के साथ युद्ध करने की सामर्थ्य रखते हों) युद्ध करने के लिए उपस्थित हैं। दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना के ऐसे असाधारण महापराक्रमी योद्धाओं का उल्लेख भी किया जो अर्जुन और भीम के समान बलशाली महान सेना नायक थे जिन्हें युद्ध में पराजित करना कठिन होगा।
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते
अस्माकम् हमारे; तु-परन्तु; विशिष्टा–विशेष रूप से; ये-जो; तान्–उनको; निबोध जानकारी देना, द्विज-उत्तम-ब्राह्मण श्रेष्ठ, नायका:-महासेना नायक, मम हमारी; सैन्यस्थ सेना के; संज्ञा-अर्थम्-सूचना के लिए; तान्–उन्हें; ब्रवीमि वर्णन कर रहा हूँ; ते-आपको।
हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! हमारे पक्ष की ओर के उन सेना नायकों के संबंध में भी सुनिए, जो सेना को संचालित करने में विशेष रूप से निपुण हैं। अब मैं आपके समक्ष उनका वर्णन करता हूँ।
यहाँ कौरव सेना के प्रधान सेनापति द्रोणाचार्य को दुर्योधन ने 'द्विजोत्तम' (द्विजन्मा में श्रेष्ठ या ब्राह्मण) ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ कहकर संबोधित किया। उसने जान बूझकर अपने गुरु को इस प्रकार संबोधित किया। द्रोणाचार्य वृत्ति से योद्धा नही थे, वह सैन्य शिक्षा के आचार्य थे। एक कपटी नायक के रूप में दुर्योधन अपने मन में अपने गुरु की निष्ठा पर निर्लज्जतापूर्वक संदेह कर रहा था। दुर्योधन के शब्दों में छिपा अर्थ यह था कि यदि द्रोणाचार्य पराक्रम से युद्ध नही लड़ते तो उन्हें मात्र एक ब्राह्मण ही माना जाएगा जिसकी रुचि दुर्योधन के राज्य में केवल उत्तम जीविका अर्जित करने और सुख सुविधाएं भोगने की होगी।
ऐसा कहकर अब दुर्योधन अपना और अपने गुरु के मनोबल को बढ़ाना चाहता था और इसलिए वह अपनी सेना के महासेनानायकों की गणना करने लगा।
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