हम यह तो जानते हैं कि जो हम खाते हैं उससे हमारे शरीर की मांसपेशियों और त्वचा को पोषण मिलता है.
लेकिन दिमाग़ पर इसका क्या असर पड़ता है?
हाल में इसका जवाब ढूंढने के लिए काफ़ी शोध हुए हैं जिससे पता चलता है कि जो हमारे पेट में जाता है उसका सीधा संबंध उससे है जो हमारे दिमाग़ में चलता है.
इस हफ़्ते हम दुनिया जहान में यह जानेंगे कि हमारे पेट के साथ क्या मसला है?
खाना कैसे पचता है?
दरअसल पेट क्या है? ह्यूस्टन के बेलर मेडिकल कॉलेज में गैस्ट्रोएंटेरोलॉजिस्ट के प्रोफ़ेसर जॉफ़ प्रेडिस कहते हैं कि मुंह से लेकर गुदा के बीच सभी अवयव पेट का हिस्सा हैं जो पाचन में भूमिका निभाते हैं.
इसमें लिवर और पैन्क्रिया भी शामिल हैं. आमतौर पर यह कई मीटर लंबा पाइप पेट कहलाता है.
जॉफ़ प्रेडिस कहते हैं, "आंतों का हर हिस्सा पाचन क्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. पेट एसिड कि मदद से अन्न को पीसता है और फिर उसे छोटी आंत में पहुंचाया जाता है जहां अन्न के न्यूट्रिएंट यानि पौष्टिक तत्वों को पचाया जाता है."
जो कुछ वहां नहीं पचता है उसे बड़ी आंत में पहुंचाया जाता है जहां बची हुई चीज़ें और पानी को पचाया जाता है.
इसके बाद शरीर में जो बचता है उसे मल के रूप में बाहर निकाल दिया जाता है.
जॉफ़ प्रेडिस ने कहा कि इस पूरी प्रक्रिया में अन्न को पीसकर पचाने के लिए गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल ट्रैक की सभी मांसपेशियां और नसें मिलकर काम करती हैं.
पेट का काम सिर्फ़ अन्न को पचाना ही नहीं होता बल्कि इम्यून सिस्टम यानी रोग प्रतिरोधक क्षमता को मज़बूत करना भी होता है.
पेट यह सुनिश्चित करता है कि अन्न के अनावश्यक तत्व जो शरीर को नुक़सान पहुंचा सकते हैं वो शरीर के दूसरे हिस्सों में ना
जॉफ़ प्रेडिस कहते हैं, “कुछ बैक्टीरिया बीमारी फैला सकते हैं. कुछ लोगों के पेट की दीवार कमज़ोर होने की वजह से माइक्रोब या जीवाणु पेट से लीक होकर शरीर के दूसरे हिस्सों में फैल सकते हैं जिससे लोग बीमार पड़ सकते हैं.”
यानी हमारा पेट शरीर का एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतिरक्षा तंत्र भी है.
जॉफ़ प्रेडिस के अनुसार, “हमारा पेट एक शक्तिशाली इम्यून सिस्टम है. यह बहुत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि हमारे आहार के ज़रिए कई किस्म के बैक्टीरिया और वायरस पेट में पहुंचते हैं.”
“यह अगर गैस्ट्रो इंटेस्टाइनल ट्रैक से निकल कर शरीर के दूसरे हिस्सों में घुस जाएं तो काफ़ी नुकसान हो सकता है. इसलिए पेट हमारे प्रतिरोधक सिस्टिम का पहला मोर्चा होता है. लेकिन अगर हमारा पेट ज़रूरत से ज़्यादा सक्रिय हो जाए तो इसमें सूजन आ जाती है.”
वो कहते हैं कि इससे क्रोन्स डिसीज़ और अल्सरेटिव कोलाइटिस जैसी बीमारियां होती हैं जिससे आंत में फोड़े और गुदा में सूजन पैदा होती है.
जॉफ़ प्रेडिस के मुताबिक, पेट के इर्द-गिर्द फैली नसों का मस्तिष्क से सीधा संबंध होता है और दोनों के बीच सिग्नल का आदान-प्रदान होता है.
अगर पेट में कोई ख़राबी हो तो दिमाग़ को पता चल जाता है.
हाल के दौरान शोधकार्यों से पता चला है कि यह संपर्क, जितना हम पहले समझते थे उससे कहीं अधिक गहरा है.
वेगस नर्व
जेन फ़ॉस्टर न्यूरो साइंटिस्ट हैं जो टेक्सस यूनिवर्सिटी के साउथ वेस्टर्न मेडिकल सेंटर में मनोविज्ञान में प्रोफ़ेसर हैं.
बीबीसी के साथ एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि हमारे शरीर में मौजूद वेगस नर्व दिमाग को पेट से जोड़ने वाली सबसे लंबी नस है.
“वेगस नस पेट और उसके इर्द-गिर्द के अवयवों की मांसपेशियों से जुड़ी होती है. यह एक दोहरी दिशा वाली नर्व है जो दिमाग़ से सिग्नल को पेट तक पहुंचाती है और पेट से दिमाग़ तक सिग्नल भेजती है. यानी पेट से मिलने वाले सिग्नल के अनुसार दिमाग़ हरकत करता है.”
वेगस नस दिमाग़ और पेट के बीच मौजूद सिग्नल के आदान-प्रदान का सुपर हाइवे है.
दस साल पहले कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया था जिससे पता चला कि पेट की स्थिति का हमारे दिमाग़ पर गहरा असर पड़ता है.
इस प्रयोग के दौरान महिलाओं के एक गुट को कुछ हफ़्तों तक फ़र्मेंटेड दूध पीने के लिए दिया गया और दूसरे गुट को सामान्य दूध दिया गया.
वैज्ञानिकों ने पाया कि जिस गुट ने फ़र्मेंटेड दूध पिया था, उनके मस्तिष्क की गतिविधियां पाचन के दौरान बेहतर हो गईं. ख़ासतौर पर मस्तिष्क के उस हिस्से की जो हमारी संवेदनाओं को नियंत्रित करती हैं. इसका मतलब है कि हमारे पेट में मौजूद बैक्टीरिया या माइक्रोब हमारे दिमाग़ की गतिविधियों को प्रभावित करते हैं.
जेन फ़ॉस्टर ने कहा कि “वैज्ञानिकों ने पाया कि महिलाओं के जिस गुट ने चार हफ़्ते तक फ़र्मेंटेड दूध पिया था जिसमें प्रोबायोटिक्स थे, उनके दिमाग की संवेदनात्मक गतिविधि में बदलाव दिखाई दिया. इसकी वजह से एक नए शोध का दरवाज़ा खुल गया.”
“अब यह पता लगाया जा सकता है कि क्या पेट में मौजूद माइक्रोब से हम मानसिक बीमारियों का इलाज कर सकते हैं? मनोविज्ञान के क्षेत्र में इसकी बड़ी भूमिका हो सकती है.”
हम यह तो पहले से जानते थे कि दिमाग़ी तनाव से पेट में समस्याएं पैदा हो सकती हैं लेकिन अब यह सामने आया है कि पेट में मौजूद सही बैक्टीरिया दिमाग़ी तनाव को कम करने में मदद कर सकते हैं.
जेन एक ख़ास किस्म के बैक्टीरिया पर शोध कर रही हैं जिसका संबंध दिमाग में चिंता या तनाव से हो सकता है.
उन्होंने कहा, “हाल में हमने डिप्रेस्ड यानि अवसादग्रस्त लोगों के अध्ययन में पाया कि कुछ ऐसे बैक्टीरिया भी हैं जो अवसाद या चिंता को कम करने में मदद करते हैं. हम अब यह भी पता कर सकते हैं कि अवसादग्रस्त लोगों में चिंता का कारण यह बैक्टीरिया है या कोई और वजह है.”
अवसादग्रस्त लोगों में बेचैनी की वजह का पता लगाना पेचीदा काम है. मगर यह सुराग हमारे हाथ लगा है, जिससे हमें पता चल सकता है कि क्या किसी बैक्टीरिया या माइक्रोब की ग़ैरमौजूदगी से बेचैनी बढ़ रही है? और अगर ऐसा है तो क्या उस माइक्रोब के सेवन से समस्या का समाधान हो सकता है?
इस बारे में जेन फ़ॉस्टर कहती हैं कि, “ऐसा संभव है कि डिप्रेशन से जूझ रहे कुछ लोगों में आहार में इस बैक्टीरिया की कमी की वजह से डिप्रेशन बढ़ रहा हो. लेकिन हमने अपनी रिसर्च में पाया है कि ऐसे कई बैक्टीरिया केवल अन्न से ही नहीं आते बल्कि हमारे डीएनए की वजह से भी हमारे शरीर में पैदा होते हैं.”
हम अभी तक यह पूरी तरह से समझ नहीं पाए हैं कि हमारे पेट में मौजूद बैक्टीरिया का संबंध हमारे जीन्स से है या खानपान और जीवनशैली से है.
हालांकि यह सभी मानते हैं कि संतुलित आहार और एक्सरसाइज़ से पेट और मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहता है. लेकिन इन बैक्टीरिया की मदद से किस प्रकार के डिप्रेशन का शिकार लोगों की मदद की जा सकती है इस पर अभी पुख़्ता जानकारी मौजूद नहीं है.
‘गट फ़ीलिंग’
दुनियाभर में हर साल पाचन क्षमता को सुधारने के लिए इस्तेमाल होने वाले फ़ूड सप्लीमेंट पर लगभग 50 अरब डॉलर खर्च होते हैं.
यानी लगभग उतने ही पैसे जितने चॉकलेट पर खर्च किए जाते हैं.
नीदरलैंड्स में नीज़ो फ़ूड रिसर्च कंपनी के बिज़नेस डेवेलपमेंट मैनेजर मार्टिन हैम कहते हैं कि कई लोगों को पाचन संबंधी कोई समस्या नहीं होती फिर भी वो इसके लिए सप्लीमेंट लेते हैं क्योंकि वो सुनिश्चित करना चाहते हैं कि वो हमेशा स्वस्थ रहें.
मार्टिन हैम ने बीबीसी से बातचीत के दौरान बताया कि सप्लीमेंट दो प्रकार के होते हैं. प्रोबायोटिक्स- जिसमें उसी तरह के बैक्टीरिया होते हैं जो हमारे पेट में होते हैं. और दूसरे प्रीबायोटिक जिसमें ऐसे फ़ायबर होते हैं जो हमारी आंत में माइक्रोब का पोषण करते हैं. लेकिन यह सप्लीमेंट तभी प्रभावी होते हैं जब वो हमारे पेट की बड़ी आंत तक पहुंच जाएं.
बड़ी आंत में पहुंचने से पहले इन्हें छोटी आंत से होकर गुज़रना पड़ता है जिनकी लंबाई हमारे शरीर की लंबाई से तीन गुना होती है. इन सप्लीमेंट को काफ़ी लंबा सफ़र तय करना पड़ता है. तभी यह असरदार हो सकते हैं.
मार्टिन कहते हैं, “पेट पाचन क्रिया का पहला पड़ाव होता है और आंतों के भीतर कई माइक्रोब जीवित नहीं रह पाते. यह भी पता चला है कि छोटी आंतों में भी माइक्रोब होते हैं जो हमारे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होते हैं.”
सवाल यह है कि अगर यह माइक्रोब पेट में होने वाली अन्न कि पिसाई से निकल कर छोटी आंतों से गुज़र कर बड़ी आंत यानी कोलोन तक पहुंच भी जाते हैं तो क्या वो असरदार रहते हैं?
इसके जवाब में मार्टिन हैम ने कहा, “यह एक जटिल विषय है. लेकिन हमने प्रोबायोटिक और प्रीबायोटिक के फ़ायदों के बारे में काफ़ी शोध किया है और सिद्ध किया है कि इनसे अच्छे बैक्टीरिया की संख्या बढ़ती है और कुछ हानिकारक बैक्टीरिया कम हो जाते हैं.”
अगर लोगों को लगता है कि उनका पाचन ठीक नहीं है और उन्हें कोई प्रोबायोटिक या प्रिबायोटिक सप्लीमेंट लेना चाहिए तो यह चुनाव कैसे किया जाना चाहिए?
मार्टिन हैम के अनुसार, बहुत सारे प्रोबायोटिक पेट में ही ख़त्म हो जाते हैं. इसलिए आपको पता करना चाहिए कि जिस प्रोबायोटिक का आप सेवन करना चाहते हैं उसके माइक्रोब आंतों में जीवित रह पाएंगे या नहीं. ऐसा नहीं है कि आप कोई भी प्रोबायोटिक ख़रीद लें. आपको पता करना चाहिए कि उसके फ़ायदे का कोई वैज्ञानिक आधार है या नहीं.
अगर हम अपने जींस नहीं बदल सकते और सप्लीमेंट के लेबल की जटिलताओं से पार नहीं पा सकते तो हमारे पास दूसरा विकल्प यही है कि हम अपनी जीवनशैली में सुधार पर ध्यान
दो लोगों का भोजन
सही आहार के बारे में ज़्यादा जानने के लिए हमने बात की गेल हेक्ट से जो शिकागो की लोयोला यूनिवर्सिटी में माइक्रोबायोलॉजी और इम्यूनोलॉजी की प्रोफ़ेसर हैं.
वो पेट में बीमारी फैलाने वाले पैथोजेन या रोगाणुओं की विशेषज्ञ हैं. वो कहती हैं कि पेट को स्वस्थ रहने के लिए कई किस्म के बैक्टीरिया और माइक्रोब्स की ज़रूरत होती है.
“अक्सर पेट में मौजूद बैक्टीरिया पर बात होती है लेकिन वहां कई तरह के माइक्रोब होते हैं जो अकेले नहीं बल्कि साथ मिलकर काम करते हैं. वो हमें स्वस्थ रखने में भूमिका निभाते हैं. इनके बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता.”
यानी पेट की देखभाल करने के लिए ज़रूरी है कि वहां मौजूद माइक्रोब की देखभाल हो?
गेल हेक्ट ने कहा कि, “हम स्वस्थ रहने के लिए इन बैक्टीरिया और माइक्रोब्स पर निर्भर हैं. इनका पोषण करने कि ज़िम्मेदारी हमारी है. यह माइक्रोब्स क्या खाते हैं? वो हमारे आहार की बची-खुची चीज़ें खाते हैं. मिसाल के तौर पर हम बीन्स या दूसरी सब्ज़ियां खाते हैं जिसमें फ़ायबर होता है. जब यह फ़ायबर पूरी तरह नहीं पचता है तो वो कोलन में पहुंचता है जहां यह बैक्टीरिया रहते हैं जो उस फ़ायबर पर पलते हैं. इसका एक बुरा प्रभाव यह है कि इससे गैस पैदा होती है. लेकिन मेरा मानना है कि यह दरअसल अच्छा संकेत है जिससे पता चलता है कि यह बैक्टीरिया सही तरह से पल रहे हैं और काम कर रहे हैं.”
लेकिन जब हम प्रोसेस्ड खाद्य सामग्री खाते हैं तो ऐसा क्यों नहीं होता?
गेल हेक्ट के अनुसार, “प्रोसेस्ड आहार के सेवन से ऐसा इसलिए नहीं होता क्योंकि उसमें फ़ायबर बहुत कम होता है. उसमें शुगर होती है जो हम तुरंत पचा लेते हैं और माइक्रोब्स के लिए कुछ नहीं बचता. प्रोटीन और ग्लूकोज़ युक्त आहार हमारी मांसपेशियों का पोषण करते हैं लेकिन खाना खाते समय हमें केवल अपने शरीर का ही नहीं बल्कि पेट में मौजूद माइक्रोब के पोषण का भी ख़्याल रखना चाहिए.”
“इसके लिए हमें ताज़े फल और सब्ज़ियों का सेवन करना चाहिए. आहार जितना प्राकृतिक होगा पेट के लिए उतना अधिक बेहतर रहेगा. दही जैसी फ़र्मेंटेड चीज़ें भी अच्छी हैं क्योंकि उसमें पेट के लिए आवश्यक बैक्टीरिया होते हैं.”
खाना खाते समय आपको केवल यही नहीं सोचना कि आपको क्या अच्छा लगता है बल्कि यह भी ध्यान में रखना है कि पेट में मौजूद माइक्रोब के लिए क्या अच्छा है.
गेल हेक्ट कहती हैं, “मैं इसे ऐसे देखती हूं कि आप दो लोगों को खाना खिला रहे हैं. एक आपका इंसानी शरीर और दूसरे आपके पेट में मौजूद माइक्रोब. इंसानी शरीर के लिए आपको ऊर्जा चाहिए तो आपको उसके लिए प्रोटीन लेना है. एक्सरसाइज़ करनी है. लेकिन पेट में पलने वाले माइक्रोब के पोषण के लिए आपको फ़ायबर और कार्बोहाइड्रेट्स का सेवन करना चाहिए ताकि शरीर स्वस्थ रहे.”
यह स्पष्ट है कि हमारे मानसिक स्वास्थ्य का भी इन माइक्रोब से सीधा संबंध है.
हाल में वैज्ञानिकों ने यह दावा किया है कि मोटापा, डाइबिटीज़, अल्ज़ाइमर, पार्किंसन्स बीमारी से पीड़ित लोगों के पेट में इन माइक्रोब की विविधता उन लोगों के मुकाबले कम होती है जिन्हें यह बीमारियां नहीं होतीं.
हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह बीमारियां इन माइक्रोब के कम होने से होती हैं या इन बीमारियों से माइक्रोब की विविधता घट जाती है.
लेकिन एक बात कई प्राचीन चिकित्सक कह गए हैं कि सभी बीमारियों की शुरुआत पेट से होती है. इसलिए हमें अपनी ‘गट फ़ीलिंग’ या भीतर की आवाज़ पर भी ध्यान देना चाहिए.
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