यह बहुत सीधी-सी बात है कि भीड़ में सही और गलत को छांटना मुश्किल हो जाता है। भीड़ में जो लोग होते हैं उनका अपना कोई विवेक नहीं होता और इसीलिए जब-जब आप भीड़ से घिरे हुए होंगे, अपने आप को अशांत पाएंगे। किसी की योग्यता टटोलना हो, कोई जिम्मेदारी सौंपनी हो तो उसे भीड़ से निकालकर अकेले में लाना पड़ता है। मनुष्य अकेला हो तो आप उसकी जिम्मेदारी तय कर सकते हैं। मनुष्यों की भीड़ की कहानी तो स्पष्ट है ही, लेकिन विचारों की भीड़ भी यही परिणाम देती है। हमारे भीतर जो विचार भीड़ की तरह आ जाते हैं, लगातार आने लगते हैं, धक्का-मुक्की करते हैं तो हम भ्रम में पड़कर गलत की ओर चलने लगते हैं, अशांत हो जाते हैं। हमारे साथ ज्यादातर मौकों पर ऐसा ही होता है।
लगता है जैसे विचारों का रेला चला आ रहा हो। अब ऐसे में आप किस विचार को जिम्मेदार ठहराएंगे अच्छे काम के लिए। कैसे चयन करेंगे कि कौन-सा विचार आपको सफलता दिला सकता है, क्योंकि भीड़ में से छांटना बड़ा मुश्किल हो जाता है। एक प्रयोग करते रहिएगा। कई बार ऐसा होता है कि हम काम की चीज को रद्दी में फेंक देते हैं और हमारे आस-पास रद्दी पड़ी रह जाती है। विचारों की रद्दी को भी रोज-रोज साफ करते रहिए। सप्ताह में कोई एक दिन तय कर लें और इस रद्दी की सफाई करें। इसमें मजेदार बात यह है कि रद्दी के खरीदार भी आप ही हैं, बेचने वाले भी आप और ट्रेंचिंग ग्राउंड भी आप ही का है, लेकिन यदि यह सफाई नहीं की तो एक दिन विचारों की यह भीड़ आपको लगभग पागल जैसा बना देगी। आप बाहर से भले ही विद्वान, समझदार दिखें, लेकिन भीतर से लगभग पागल जैसे ही हरकतें शुरू कर देंगे। इसलिए विचारों की भीड़ को रद्दी मानकर जब भी मौका मिले ठिकाने लगाते रहिए, सफाई करते रहिए।
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