सोचने का समय

अपराध कैसा भी हो, किसी भी सभ्य समाज की नींद उड़ाने के लिए काफी होता है। अपराध के खिलाफ पुलिस की मदद लेना भी स्वाभाविक है लेकिन जब उसे रोकने के लिए एहतियातन कोई कदम उठाने की बात हो तो हर वर्ग को जागना होगा। जागना इसलिए जरूरी है ताकि अपराध का दुष्प्रभाव कम हो। लेकिन इससे भी जरूरी यह है कि समाज स्वयं को भी उस आईने में देखे जहां शिकायतों के अंबार लगते हैं। यह ठीक है कि सारा समाज अपराधी नहीं है लेकिन जो भी और जितने भी अपराधी हैं, वे भी इसी समाज से निकलते हैं और संभव है कि जब शालीनता और सभ्यता उन्हें आचरण में दिखेगी तो वे गलत रास्ते से गुरेज भी कर सकते हैं। एक मूक-बधिर लड़की के साथ दुराचार हो तो यही समझा जाएगा कि संस्कार और शिष्टाचार की अंत्येष्टि हो चुकी है। यहां आकर यही प्रतीत होता है कि जिस लड़की को नियति ने चुनौती दी, उसे कुछ असामाजिक तत्वों ने भी नहीं बख्शा। अब यह पुलिस का काम है कि वह दोषियों को कानून के शिकंजे में कसे। घटना कोई एक और भले ही छोटी क्यों न हो, यह सोच कर उससे आंखें नहीं मूंदी जा सकती कि ऐसा हो गया होगा। लड़की की ही बात नहीं है, आए दिन हालात से न जूझ पाने वाली महिलाओं को आत्महत्या क्यों करनी पड़ती है, इसका जवाब भी समाज कभी तो ढूंढ़ने की हिम्मत दिखाए। हिम्मत के बिना बदलाव कैसा। कई बार प्रशासन और पुलिस की हिदायतों की अनदेखी भी अपराध को बढ़ावा दे सकती है। पालमपुर के एक निजी गेस्ट हाउस में आत्महत्या करने वाले की पहचान उसकी जेब से मिले पते के आधार पर हुई है। इससे साफ है कि कमरा देते वक्त उससे उसका पूरा पता नहीं लिया गया। हो सकता है कि उसने पता नहीं दिया हो या गलत बताया हो लेकिन ऐसी स्थिति का लाभ कई बार असामाजिक तत्व भी ले लेते हैं। ऐसे ही अपराधों की श्रेणी में वे घटनाएं भी आती हैं जिनमें किसी को कबूतरबाज अपना शिकार बनाते हैं तो कभी कुछ पढ़े-लिखे लोगों को ईमेल लॉटरी या एसएमएस के जरिये ठगी का शिकार बनाया जाता है। इनके कोई भी कारण हो सकते हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि जब तक घरों और परिवेश से आचरण के माध्यम से संस्कार नहीं मिलेंगे तब तक कुछ लोग अपराधी बनते रहेंगे।

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